दिए हुए नाम

“चमार को सिर्फ चमड़ी और कसाई को सिर्फ मांस की परख होती है!”, मैंने बेरुखी से जवाब दिया.

उसके बाद उसने कभी मुझे मोटा नहीं कहा. या यूँ कहें कि उसके बाद उसने मुझे कभी भी कुछ नहीं कहा. 

ख़राब शब्द किसी को ज़िन्दगी भर के लिए आहत कर सकते हैं इस बात की तब मुझे परख नहीं थी. उसे मुझे मोटा बुलाने में ख़ुशी मिलती थी, और मुझे वो शब्द सुनने में तकलीफ होती थी. अब इसमें से क्या सही था? उसकी ख़ुशी या मेरा चिढचिढापन ये तो मुझे पता नहीं. कभी न मिटने वाली खाने की ललक, और कभी बढ़ना न रुकने वाले वज़न के बीच में खुद को फंसा पाकर में मन ही मन झुंझलाता. मोटा बुलाया जाने पर तीखे शब्दों का प्रहार करता. कभी न मिट पाने वाली कुढन को ओढ़ कर एक तरफ बैठा रहता. किसी अचार की बरनी की तरह, जिसे खाए जाने का पूरी शिद्दत से इंतज़ार किया जा रहा हो. 

आप पूछेंगे क्या बुराई है इसमें? क्या मोटे लोगों को जीने का हक नहीं? या फिर मोटे को मोटा नहीं तो क्या पतला बुलाएं? मुझे नहीं पता, पर आज भी इस शब्द से मुझे उतनी ही कुढन होती है जितनी उस वक्त होती थी. बचपन में पढ़े हुए यूरी ओलेशा के रूसी उपन्यास “तीन मोटे" में मोटे लोगों को भ्रष्ट, और दमनकारी दिखाया जाना आज भी मुझे उतना ही गलत लगता है जितना तब लगता था. हालाँकि अब में साम्यवाद और उसके मुख्य आयामों को भली भाँती समझता हूँ, पर उस उपन्यास के अलावा मैंने कही भी किसी राजा की शक्ल-सूरत का वर्णन इतना खराब नहीं पढ़ा. यहाँ तक की हांस क्रिश्चियन अंडरसन की छोटे बच्चों के लिए लिखी गयी कहानी “राजा के नए कपडे" के चित्रों में भी वो मूर्ख राजा कहीं से भी मोटा नहीं है, और जनसामान्य की मानें तो वो बिना कपड़ों के भी उतना ही खूबसूरत दिखता है जितना की कपड़ो के साथ. खैर मोटे लोगों को राजा बना दिया जाए तो इस शब्द का इस्तेमाल ही बंद करवा दे, किसने गढ़ी ये अजीब ख़ूबसूरती की परिभाषा जिसमें मेरा स्थान नहीं? 

किसी मोटे को मोटा बुलाना उतना ही बड़ा अपराध है, जितना किसी काले आदमी को काला बुलाना. मैंने एक दिन पूरे उत्साह से ये कहा. वो कही आसपास ही था. अचानक बोल पड़ा. काला होना नियति है, पर मोटा होना कर्तृत्व. अब चोर को चोर नहीं तो क्या सज्जन बुलाएं? मुझे कुछ कहते नहीं बना. सोचने लगा कैसे कुछ तीखा कहूँ? पर उसने जो कहा वो सोलह आने सच था. उस दिन मैंने एक पाठ पढ़ा. अगर मेरे कर्मों की वजह से मुझे कोई नाम दिया जाए और मुझे वो पसंद नहीं हो तो कर्म बदलना बेहतर है. नाम पर कुढ़कर क्या मिलेगा? दूसरी तरफ अगर मुझे ऐसा लगे की मेरे कर्म सही है, तो नाम से कैसा डर? क्रांतिकारी कहाँ खुद को क्रांतिकारी कहे जाने से घबराता है? 

अब मुझे लगता है, मोटे को मोटा बुलाया जाना उतना ही सही है, जितना किसी समझदार को समझदार और कर्तव्यनिष्ठ को कर्तव्यनिष्ठ कहा जाना. आज भी मुझे खाना उतना ही पसंद है, वज़न में छटांक भर भी कोई कमी नहीं, पर कुढन ज़रूर निकल गयी है. कुछ दिन पहले वो मुझे अचानक मिल गया. हंस कर कहा, अरे! अभी भी तुम उतने ही मोटे हो. मैंने कहा, हाँ और उतना ही समझदार भी. 

कसरत जारी है. उम्मीद है, अगली बार उसे ये कहने का मौका नहीं मिलेगा, और मिले भी तो भी कोई गम नहीं. जहाँ तक नाम दिए जाने की बात है, ये सबसे बेहतरीन उदहारण है. 

एक बच्चा सड़क पर जाते हुए एक जानवर को देख कर माता पिता से पूछता है. 

माँ माँ! वो क्या है?
माँ झुंझलाते हुए जवाब देती है.....”अरे! वो एक सूअर है"

अच्छा! तो ये वोही है जिसके नाम पर आप मुझे अक्सर गुस्से से बुलाया करती हैं? 

पु.ल. देशपांडे के मराठी में आम आदमी पर लिखे गए आख्यान “असा मी" की इन पंक्तियों को याद कर के मेरी हंसी आज भी नहीं रूकती. 

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