मिनार
उसने हाँफते हुए सीढियां चढ़ना शुरू किया. उसके हाथ साथ चलती दीवारों को छूते रहे, उसके क़दमों की आवाज़ गूंजती रही जिसे नए रंगरोगन वाली दीवारों ने जज़्ब करने के बजाय और बिखेर दिया. आवाज़ धीमी होती गयी और उसके ऊपर पहुँचते पहुँचते बिलकुल बंद हो गयी. अब वह सबसे ऊपर था, जहाँ से वो सारे घर जंगल और गलियां देख सकता था. उसने डूबते हुए सूरज को देखकर एक गहरी सांस भरी और कूद गया.
अरे! कोई कूदा . सड़क पे खड़े लोगो में से कोई चिल्लाया. भागा नहीं जा सकता था. फायदा भी क्या था? कौन उसे झेल पाता? उसने अपने जीवन का फैसला कर लिया था. कुछ चंद पल हवा में और वो ज़मीन पर आ गिरा. नए सफ़ेद फर्श पर लाल दाग की तरह, जैसे कोई सफ़ेद कागज पे मोटी कूची चलाता हो. झुंझलाहट के मारे मिनार के नीचे अफरातफरी का माहौल हो गया. जिसे देखो वो मिनार की तरफ भागा. कुछ समय के भीतर ही वहां गप्पियों, दर्शकों और तीमारदारोका हुजूम जमा हो गया. चीख पुकार में किसीको कुछ समझ नहीं आया. कमबख्त मिनार! किसीने कहा. जब तक बनी तब तक परेशान तो किया ही, अब बनाने के बाद कूदने के काम ही आ रही है. पता नहीं किसकी मत मारी गयी है.
चचाजान के नींद शोर से उचट गयी. कौन कमबख्त मारा शोर मचा रहा है? इस उम्र में सोने के सिवा रखा ही क्या है? बालो को खुजलाते, और शाम और सुबह के बीच फर्क करते, वे बाहर निकले. बाहर बड़ा झुण्ड जमा हो गया था और वो भी उसमे शामिल हो गए. पास जाके देखा तो कोई पहचान का मालूम हुआ. दिमाग ने झंझोड़ के जगाया. अरे ये तो वही है. वही जो मीनार के काम में चारो और कागजों से घिरा हुआ, मजदूरों से लड़ता घूमता था. खुद को भगवान से कम न समझता था. एक पत्थर भी इधर का उधर लग जाए तो शामत, और जब तक फर्श पे सूरत न दिखने लगे तब तक घिसवाने की ताक़त. बेचारे मजदूरों पर जुल्म ढाता वो उन्हें रोज़ ही दिखा करता था. दौड़कर अन्दर गए, और नौकरों पर चिल्लाये, अरे कोई सुन रहा है? वो सामने मिनार का इंजिनियर कूद कर मर गया है. ज़रा जाकर वकील साहब को लिवा लाओ.
अँधेरा हो चला और किसीको कुछ समझ नहीं आया. ये बिजली भी कब आयेगी कोई भरोसा नहीं. उसकी लाश पर भीड़ यूँ खड़ी थी जैसे उसके वापस जिंदा होने के इंतज़ार में हो. अब जिंदा रहने के लिए भी कोई कूदता है भला? वो भी पांच मंजिला ऊंची मिनार से? जिसे खुद ही बनाया हो, और खुद ही पहला इस्तेमाल किया हो? अब जीने के लिए न सही तो मरने के लिए ही सही. दूर से लालटेन ले वकील साहब दौड़े आये. उजाले में शक्ल देखी तो उसीकी निकली. हे भगवान! मन में बजा. कही पैसों की बात को लेकर तो नहीं कूद गया? माना के पिछले ७-८ महीनो से उसका पैसा नहीं दिया गया था. पर उसके लिए कोई खुदखुशी करता है भला? कही कोई चिट्ठी छोड़ कर तो नहीं मरा ? तरह तरह के ख्यालों ने उन्हें आ घेरा. किसीने पूछा, अरे वोही है क्या? कूद काहे गया?
मुह से बोल न निकले वकील साहेब के? अब क्या कहें? किसी तरह आवाज़ निकली. हाँ हाँ वही है. हमारे घर का वास्तुकार, या यूं कहें मिनारकार. क्या कहा और क्या बनाया भगवान ही जाने. उसी के चलते उसका पैसा नहीं दिया था इतने दिनों से. पर अब कूदने के क्या ज़रुरत थी? मुह से चार बोल ही फूट लेता? या आयन रांड के उपन्यास के मुख्य पात्र की तरह मीनार को ही उड़ा लेता? न बांस रहता न ही बजती बांसुरी. उसे अदालत में देख लेता. यहाँ कौन अदालतें अंग्रेजो के तरह हैं? पर अब ये मिनार की खर्च के ऊपर और एक खर्चा. इसका करिया करम भी कराओ. पुलिस को पैसा दिलवाओ. आत्महत्या दबाओ. मन तो किया यही गड्ढा कर गाड़ दे उसे, पर अब ऐसा हो नहीं हो सकता था. वक़्त ही ऐसा चुना था उसने. सारी दुनिया ने उसे कूदते हुए देखा था . लोगों के चर्चे भी देखो. कहा मीनार बनाई ही इसलिए थी ताकि कूद सके. खैर सब कर कराके उसे रफा दफा किया. रात को अलाव जलाकर मिनार के किनारे ही बैठ गए. अब घर क्या जाएँ? घर तो वो बना गया था. ऐसा, जैसा की दुनिया में किसीका न हो. अब इस पर चढ़के क्या अज़ान लगायें?
थोड़ी ही देर में चचाजान अचानक ही जाग गए . जाड़ा पड़ रहा था. बूढ़े हो गए हैं न, इस उम्र में उल्लू बने रात नींद नहीं आती. दिन में कहो तो सारे गधे बेच के सो जाए. अब ऐसे वक़्त कोई मिले बात करने को तो बात बने . और जब बात ही ऐसी रसीली हो, तो किसीको नींद कैसे आये? उधर सामने बैठे दिखे वकील साहब, तो उन्हें पूछने चले आये. या यूं कहें कुरेदने. अब उम्र ही ऐसी है, कोई क्या करे. आकर उनके बगल में बैठ ही गए. वकील साहब दुआ सलाम के मूड में नहीं दिखे. एक तो रात, उसपर जाड़ा, मिनार के पास गूंजती हवा, अँधेरा और जलती लकड़ियों की चटखती आवाज़, ये सन्नाटा चचाजान को झेला नहीं गया. नौकर को आवाज़ लगाई. अरे सो गया क्या? जाके चाय बना ला. वकील साहब की तबियत ठीक ना है. अदरक डाल दीजो. वकील साहब ने चचाजान की तरफ देखा. चाय की कीमत का अंदाजा मिनिटों में लगाया, पर ठण्ड का जोर देखकर ख़ामोशी से सर हिलाया. अब क्या बताएं वकील साहब? चचाजान ने कहा . गरम खून है. कुछ बुरा लगा तो कूद गया, अब उसमे आपकी गलती थोड़े ही है भला? क्यूँ इस कदर रात की नींद जला रहे हैं? अच्छा ख़ासा घर बनवा लिया हैं, अब इसमें रहने आ जाइये बस. कौनसा उसके कूदने से झुक गयी ये मिनार?
अजी झुक जाती तो मशहूर हो जाती. वकील साहब के मुह से बड़ी देर बाद बोल फूटे. आपको पता नहीं? दूर दूर से परदेस जाते हैं लोग झुकी मीनार देखने. ये मरी तो झुक भी न सकी. इतने पैसों का बट्टा भी लगा गयी. झुकती तो टिकट लगा तमाशा बना देते इसका. पर अब भला क्या करें? चचाजान कुछ समझ न सके, कहने लगे, अरे! पर ये मीनारनुमा घर का विचार था किसका?
अजी किसीका नहीं. हमने तो कहा था, एक ढंग का घर बनाओ. मैंने कहा भाई ऐसा घर हो जैसा किसीका नहीं, कम से कम मेरे तीन बेटे अलग अलग रह सके आराम से, चाहे तो अलग अलग भी . आजकल की औलादों का क्या भरोसा? कभी भी झगड़ बैठें. ऐसी इमारत जिसे हर कोई दूर दूर से देख सके, और मेरी बेटी रात को तारों का नज़ारा कर सके, जिसमे हवा बनी रहे सदा, चारों और से. और कही से भी सूरज की गर्मी न आये. ज़मीन भी थोड़ी कम घेरे, ताकि बगीचा हो जाए. अब घर अपना हो तो इतनी ख्वाहिश न बताये कोई? उसने पता नहीं क्या समझा? सारा मज़ा किरकिरा कर दिया. मंजिलों पे मंजिलें बनता रहा. हमें कागजों पर सब्ज़बाग दिखाता रहा. जब बना गया, तब हमने माथा ठोक लिया. फरमान सुनाया, जब तक सही न कर जाए, एक रूपया न दिया जाए. अब बताइए क्या गलत किया? अब गया तो गया, अब इस मीनार का क्या करें? आप ही कुछ बताइए?
चचाजान ने माथा ठोंक लिया, समझ न आया के हँसे या रोयें. किसे बताएं के जैसी ख्वाहिश की वैसा ही तो घर मिला? अब उस बेचारे की क्या गलती? खैर चाय आ गयी. वकील साहब ने कडवाहट और चचाजान ने मुस्कराहट को पीना शुरू किया. अलाव जलता रहा. रात और पसर आयी.
आज उस बात को कई साल बीत गए हैं. मीनार में कोई रहने नहीं गया. वकील साहब के पास कहाँ पैसों की कमी थी, कही एक और मीनार का बंदोबस्त कर लिया. खुशकिस्मती से इस बार कोई गिरकर नहीं मरा. कई सालों बाद आज एक और जवान मीनार के आसपास दिख रहा है, हाथ में आड़ी तिरछी लकीरों वाले कई कागज़ हैं. चचाजान मुस्कुराते हुए बैठे हैं. शायद मिनार बिक गयी है, और किसी और की राह देख रही है. कुछ ही दिनों में ये टूट जायेगी, और बनेगी एक और. इमारतों का क्या है? कहते हैं जब तलक कोई रहे ना उनमे, रौनक नहीं आती. उन्हें सोचता कौन है, उससे क्या फरक पड़ता है? इमारतें पैसा देने वालों की होती हैं, ये पता नहीं है तुम्हे? इसीलिए तो कहते हैं, शाहजहाँ ने ताज महल बनवाया है.
- अभिजित दाते
bahut khoob
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